दिल्ली हाईकोर्ट के न्यायाधीश यशवंत वर्मा, जिनके आधिकारिक आवास से 14 मार्च को कथित रूप से बड़ी मात्रा में नकदी बरामद की गई थी, उनका नाम पहले ही 2018 में दर्ज CBI की एक FIR में आ चुका था। यह मामला सिम्भौली शुगर मिल बैंक घोटाले से जुड़ा हुआ है।
CBI की 2018 की FIR
CBI ने सिम्भौली शुगर मिल्स, इसके निदेशकों और अन्य लोगों के खिलाफ एक मामला दर्ज किया था, जिसमें यशवंत वर्मा, जो उस समय कंपनी के नॉन-एग्जीक्यूटिव डायरेक्टर थे, का भी नाम शामिल था। यह मामला ओरिएंटल बैंक ऑफ कॉमर्स (OBC) की शिकायत पर आधारित था, जिसमें बैंक को धोखाधड़ी से करोड़ों रुपये के लोन घोटाले में फंसाने का आरोप लगाया गया था।
बैंक के अनुसार, जनवरी से मार्च 2012 के बीच OBC की हापुड़ ब्रांच ने 5,762 किसानों को 148.59 करोड़ रुपये उर्वरक और बीज खरीदने के लिए दिए थे। यह रकम पहले एस्क्रो अकाउंट में जानी थी, फिर किसानों के व्यक्तिगत खातों में ट्रांसफर की जानी थी। सिम्भौली शुगर मिल्स ने इस लोन की गारंटी दी थी और धोखाधड़ी की स्थिति में भुगतान करने का वादा किया था।
बाद में, कंपनी पर फर्जी KYC दस्तावेज जमा कर धन का गबन करने का आरोप लगा। मार्च 2015 में OBC ने इस लोन को फ्रॉड घोषित किया, जिसमें 97.85 करोड़ रुपये का नुकसान बताया गया, जबकि बकाया राशि 109.08 करोड़ रुपये थी।
इस मामले में गुरपाल सिंह, जो कंपनी के डिप्टी मैनेजिंग डायरेक्टर और तत्कालीन पंजाब मुख्यमंत्री अमरिंदर सिंह के दामाद थे, का भी नाम शामिल था।
2023 में इलाहाबाद हाईकोर्ट का हस्तक्षेप
दिसंबर 2023 में इलाहाबाद हाईकोर्ट ने सात बैंकों से जुड़े इस लोन घोटाले की पुनः CBI जांच के आदेश दिए। कोर्ट ने कहा कि यह धोखाधड़ी “न्यायपालिका के विवेक को झकझोरने वाली” है।
कोर्ट ने पाया कि 900 करोड़ रुपये के लोन को पास कराने में बैंक अधिकारियों की मिलीभगत थी। OBC ही एकमात्र बैंक था जिसने प्रवर्तन निदेशालय (ED) से संपर्क किया, जिसके बाद कुछ संपत्तियां जब्त की गईं।
कोर्ट ने आदेश में कहा:
“बैंक अधिकारियों ने पूरी तरह से RBI के दिशा-निर्देशों को नजरअंदाज किया। CBI को यह जांच करनी चाहिए कि किन अधिकारियों ने इन लोन को मंजूरी दी, कौन से बोर्ड या क्रेडिट कमेटी के सदस्य इसके लिए जिम्मेदार थे, और किसने इस घोटाले को अनदेखा किया।”
2024 में CBI की नई जांच
इलाहाबाद हाईकोर्ट के आदेश पर फरवरी 2024 में CBI ने एक नई जांच शुरू की। इस जांच का उद्देश्य यह पता लगाना था कि बैंकों ने 2009 से 2017 तक सिम्भौली शुगर मिल्स को लोन देना क्यों जारी रखा, जबकि कंपनी पहले से डिफॉल्टर थी।
हालांकि, मार्च 2024 में सुप्रीम कोर्ट ने इलाहाबाद हाईकोर्ट के आदेश पर रोक लगा दी।
न्यायाधीश वर्मा के आवास पर नकदी बरामदगी और आग
14 मार्च को दिल्ली के लुटियंस जोन में स्थित न्यायाधीश वर्मा के आधिकारिक आवास के स्टोररूम में आग लगने की घटना सामने आई। जब फायर ब्रिगेड वहां पहुंची, तो जूट की बोरियों के बीच जली हुई नकदी के ढेर मिले।
अधिकारियों ने कथित तौर पर वहां से करीब 15 करोड़ रुपये की नकदी बरामद की। हालांकि, इस घटना में कोई हताहत नहीं हुआ, इसलिए कोई FIR दर्ज नहीं की गई। लेकिन दिल्ली पुलिस के वरिष्ठ अधिकारियों ने इस मामले की जानकारी सरकार और भारत के मुख्य न्यायाधीश (CJI) को दी, जिसके बाद CJI ने मामले की जांच के आदेश दिए।
न्यायपालिका में हलचल, ट्रांसफर के बाद सख्त कार्रवाई की मांग
इस घटना के बाद, सुप्रीम कोर्ट कोलेजियम, जिसका नेतृत्व CJI संजीव खन्ना कर रहे हैं, ने न्यायाधीश वर्मा को वापस इलाहाबाद हाईकोर्ट में ट्रांसफर करने का फैसला किया।
हालांकि, सूत्रों के अनुसार, कोलेजियम के कुछ सदस्य और कड़ी कार्रवाई की मांग कर रहे हैं। यदि न्यायाधीश वर्मा स्वेच्छा से इस्तीफा नहीं देते, तो उनके खिलाफ आंतरिक जांच शुरू की जा सकती है, जिससे संसद द्वारा उनके निष्कासन की प्रक्रिया भी शुरू हो सकती है।
कानूनी जगत में तीखी प्रतिक्रियाएं
दिल्ली हाईकोर्ट के मुख्य न्यायाधीश डीके उपाध्याय ने इस घटना को लेकर न्यायपालिका के लिए “हतोत्साहित करने वाला” बताया। वरिष्ठ वकील कपिल सिब्बल ने कहा कि न्यायपालिका में भ्रष्टाचार एक गंभीर मुद्दा है और न्यायाधीशों की नियुक्ति प्रक्रिया में अधिक पारदर्शिता की जरूरत है।
पूर्व सॉलिसिटर जनरल हरीश साल्वे ने जांच की वैधता पर सवाल उठाए। दिल्ली के फायर चीफ अतुल गर्ग ने दावा किया कि घटनास्थल से कोई नकदी बरामद नहीं हुई। इससे मामला और उलझ गया है।
हरीश साल्वे ने NDTV से बातचीत में कहा:
“अगर नकदी बरामद नहीं हुई, तो जांच किस बारे में हो रही है? और अगर आरोप सही हैं, तो सिर्फ ट्रांसफर करना काफी नहीं है।”
उन्होंने निष्पक्ष जांच के लिए एक स्वतंत्र पैनल गठित करने की जरूरत बताई और कहा कि न्यायाधीश का ट्रांसफर रोक दिया जाना चाहिए ताकि पूरी सच्चाई सामने आ सके।
यह मामला अब सिर्फ एक न्यायाधीश से जुड़ा मामला नहीं, बल्कि भारतीय न्यायपालिका की पारदर्शिता और विश्वसनीयता पर भी सवाल खड़ा कर रहा है।