तमिलनाडु की एम. के. स्टालिन सरकार को आज सुप्रीम कोर्ट से बड़ी जीत मिली है। अदालत ने राज्यपाल आर.एन. रवि द्वारा 10 अहम विधेयकों को मंजूरी देने से इनकार करने को “गैरकानूनी” और “मनमाना” करार दिया। कोर्ट ने साफ कहा कि अगर राज्यपाल किसी बिल को मंजूरी नहीं देते हैं, तो वे उसे राष्ट्रपति के पास भेजने का अधिकार नहीं रखते।
न्यायमूर्ति जे.बी. पारदीवाला और न्यायमूर्ति आर. महादेवन की पीठ ने कहा,
“राज्यपाल द्वारा 10 विधेयकों को राष्ट्रपति के पास भेजना अवैध और मनमाना है। यह कार्रवाई रद्द की जाती है। इन सभी विधेयकों को वह तिथि मानी जाएगी जिस दिन उन्हें दोबारा राज्यपाल को प्रस्तुत किया गया था।”
कोर्ट ने यह भी कहा कि राज्यपाल ने “सद्भावना में कार्य नहीं किया”।
⚖️ क्या कहा संविधान और अदालत ने?
अनुच्छेद 200 के अनुसार, जब राज्य विधानसभा से कोई विधेयक पारित होकर राज्यपाल के पास जाता है, तो उनके पास तीन विकल्प होते हैं:
- विधेयक को मंजूरी देना
- मंजूरी रोकना
- राष्ट्रपति के विचारार्थ सुरक्षित रखना
हालांकि, अगर विधेयक को दोबारा विधानसभा पास करती है, तो राज्यपाल उसे अस्वीकार नहीं कर सकते।
अदालत ने इन प्रक्रियाओं के लिए समय-सीमा भी तय की:
- 1 माह: जब राज्यपाल किसी विधेयक को राष्ट्रपति के पास भेजने का निर्णय लेते हैं (मंत्रिपरिषद की सलाह से)
- 3 माह: यदि यह फैसला बिना मंत्रिपरिषद की सलाह के लिया गया हो
- 1 माह: जब विधानसभा किसी विधेयक को संशोधित कर दोबारा भेजती है, तो राज्यपाल को उसे एक महीने में मंजूरी देनी होगी
कोर्ट ने स्पष्ट किया कि राज्यपाल द्वारा अनुच्छेद 200 के तहत लिए गए किसी भी निर्णय की न्यायिक समीक्षा की जा सकती है।
🗣️ एम. के. स्टालिन की प्रतिक्रिया
तमिलनाडु के मुख्यमंत्री एम. के. स्टालिन ने इस फैसले को “ऐतिहासिक” बताया और कहा:
“यह सिर्फ तमिलनाडु नहीं, बल्कि सभी भारतीय राज्यों की जीत है। डीएमके राज्य के अधिकारों और संघीय ढांचे के लिए संघर्ष करती रहेगी।”
🏛️ राज्यपाल बनाम राज्य सरकार: लंबी टकराव की कहानी
2021 में राज्यपाल बने आर.एन. रवि, जो पहले आईपीएस अधिकारी और सीबीआई में भी कार्यरत रह चुके हैं, तब से ही तमिलनाडु की डीएमके सरकार के साथ टकराव में रहे हैं।
राज्य सरकार ने उन पर बीजेपी के प्रवक्ता की तरह काम करने और विधेयकों व नियुक्तियों को रोकने का आरोप लगाया है। राज्यपाल का कहना है कि उन्हें संविधान के तहत विधेयकों को रोकने का अधिकार है।
राज्यपाल के भाषणों को लेकर भी विवाद रहे हैं, जहां उन्होंने या तो हिस्सा पढ़ने से इनकार कर दिया या भाषण ही छोड़कर चले गए।
🧭 निष्कर्ष
सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले से यह स्पष्ट संकेत गया है कि राज्यपाल संविधान के दायरे में रहकर कार्य करें, न कि मनमाने ढंग से। राज्य सरकारों को उनकी वैधानिक शक्तियों के तहत काम करने का संवैधानिक संरक्षण मिला है।
यह फैसला आने वाले समय में अन्य राज्यों में भी राज्यपाल और सरकार के बीच बेहतर संतुलन कायम करने में अहम भूमिका निभा सकता है।