“खुद ही मुसीबत को बुलावा दिया”: इलाहाबाद हाईकोर्ट के जज का रेप केस में जमानत आदेश, फिर उठे सवाल

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इलाहाबाद हाईकोर्ट के एक जज द्वारा हाल ही में दिए गए एक आदेश ने फिर से विवाद को जन्म दे दिया है। न्यायमूर्ति संजय कुमार सिंह ने एक रेप आरोपी को जमानत देते हुए कहा कि पीड़िता ने “खुद ही मुसीबत को बुलावा दिया और वह इसके लिए जिम्मेदार भी है”।


🔍 मामला क्या है?

  • FIR के अनुसार, पीड़िता एक पोस्टग्रेजुएट छात्रा है और दिल्ली में पेइंग गेस्ट के रूप में रहती थी।
  • 21 सितंबर 2024 को वह अपने दोस्तों के साथ हौज खास के एक रेस्टोरेंट में गई थी और वहां रात 3 बजे तक शराब पी।
  • पीड़िता ने बताया कि वह अत्यधिक नशे में थी और आराम के लिए आरोपी के घर जाने को राजी हुई थी।
  • लेकिन आरोपी ने उसे अपने रिश्तेदार के फ्लैट में ले जाकर दो बार बलात्कार किया, ऐसा पीड़िता का आरोप है।

⚖️ कोर्ट का नजरिया

जज ने अपने आदेश में लिखा:

“पीड़िता और आरोपी दोनों बालिग हैं। पीड़िता M.A. की छात्रा है और अपने कर्मों के नैतिक और सामाजिक प्रभावों को समझने में सक्षम है। यदि पीड़िता के आरोपों को सही मान भी लिया जाए, तो भी यह कहा जा सकता है कि उसने खुद ही मुसीबत को बुलाया और इसके लिए वह जिम्मेदार भी है।”

  • मेडिकल रिपोर्ट में हाइमेन फटा मिला, लेकिन डॉक्टर ने स्पष्ट रूप से बलात्कार की पुष्टि नहीं की
  • आरोपी निश्चित समय से जेल में बंद है, उसका कोई आपराधिक रिकॉर्ड नहीं है और वह सबूतों से छेड़छाड़ नहीं करेगा, ऐसा बचाव पक्ष ने कहा।

कोर्ट ने आरोपी निश्चल चांडक को जमानत दी और जांच में सहयोग करने का निर्देश दिया।


🌩 पृष्ठभूमि में और विवाद

यह आदेश ऐसे समय में आया है जब 17 मार्च को हाईकोर्ट के एक अन्य जज, न्यायमूर्ति राम मनोहर नारायण मिश्र द्वारा दिया गया निर्णय पहले ही विवादों में है। उन्होंने कहा था कि:

“केवल स्तन पकड़ना या पायजामे की डोरी तोड़ना बलात्कार या बलात्कार के प्रयास की श्रेणी में नहीं आता।”

इस टिप्पणी की सुप्रीम कोर्ट ने कड़ी निंदा की थी और कहा था:

“इसमें मानवता और संवेदनशीलता की भारी कमी दिखती है। यह टिप्पणी चार महीने के विचार के बाद दी गई है, इसलिए यह सिर्फ ‘फुट-इन-माउथ’ मामला नहीं कहा जा सकता।”


🔎 निष्कर्ष

  • दोनों मामलों ने देश की न्यायपालिका की संवेदनशीलता और लैंगिक अपराधों की व्याख्या को लेकर गहरी बहस छेड़ दी है।
  • सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि इस तरह की टिप्पणियां कानून के स्थापित मानकों से परे हैं और उन्होंने संबंधित पैराग्राफ्स को स्थगित कर दिया है।

इन निर्णयों से यह सवाल उठता है कि क्या पीड़िता के आचरण को बलात्कार के मामलों में इस प्रकार से जज करना उचित है, और क्या न्यायपालिका को और अधिक लैंगिक संवेदनशीलता की आवश्यकता है?

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